भारत में क्यों हो रहे एक के बाद एक भूस्खलन? सामने आईं ये वजहें

भारत में भूस्खलन की बढ़ती घटनाएं केवल प्राकृतिक नहीं, बल्कि मानवीय गतिविधियों का भी परिणाम हैं. जलवायु परिवर्तन, वनों की कटाई, और अनियंत्रित निर्माण से पहाड़ी क्षेत्रों की संवेदनशीलता बढ़ी है. जीएसआई के अनुसार, हिमालय और पश्चिमी घाट सबसे अधिक प्रभावित हैं. भूस्खलन से बचाव के लिए वैज्ञानिकों ने संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान की है और प्रभावी रणनीतियों पर जोर दिया है.
देशभर में लगातार और बड़े पैमाने पर हो रहे लैंडस्लाइड केवल प्राकृतिक भौगोलिक परिस्थितियों का परिणाम नहीं हैं. इसके पीछे बारिश के पैटर्न में हो रहे बदलाव, जलवायु परिवर्तन, जंगलों की अंधाधुंध कटाई और ईको-सिस्टम रूप से नाजुक क्षेत्रों में अनियंत्रित निर्माण गतिविधियां भी अहम भूमिका निभा रही हैं. यह जानकारी भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआई) के एक वरिष्ठ वैज्ञानिक ने रविवार को दी. GSI के डायरेक्टर जनरल असित साहा ने स्पष्ट किया कि प्रदूषण सीधे तौर पर भूस्खलन का कारण नहीं बनता, लेकिन वायु प्रदूषण और ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन जलवायु परिवर्तन को तेजी से बढ़ावा दे रहा है. यह परिवर्तन बारिश के पैटर्न को प्रभावित कर रहा है, जिससे भारत के कई क्षेत्रों विशेष रूप से उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे भूगर्भीय रूप से संवेदनशील इलाकों में भूस्खलन की आशंका काफी अधिक हो गई है.
असित साहा ने कहा कि हमारे पहाड़ी क्षेत्रों में भूस्खलन की संवेदनशीलता बढ़ाने वाले कई कारक हैं, जैसे कि वहां की भौगोलिक बनावट, बदलती जलवायु परिस्थितियां और लगातार बढ़ता मानवीय हस्तक्षेप. ये सभी मिलकर इन क्षेत्रों को अत्यधिक जोखिम में डालते हैं. भारत में लैंडस्लाइड कोई नई बात नहीं है विशेषकर हिमालय और पश्चिमी घाट जैसे क्षेत्रों में यह हमेशा से एक बड़ी चुनौती रही है, लेकिन हाल के वर्षों में हमने न केवल भूस्खलनों की संख्या में बढ़ोतरी देखी है, बल्कि उनकी तीव्रता भी बढ़ी है. इसके पीछे प्राकृतिक कारणों के साथ-साथ मानवीय गतिविधियां भी जिम्मेदार हैं. हिमालय के ऊपरी क्षेत्रों में नदी घाटियों के पास भूस्खलनों के कारण कई बार हिमनद झीलें बन जाती हैं, जब ये झीलें फटती हैं तो उसके नतीजे बहुत गंभीर होते हैं जैसे कि अचानक आई बाढ़ें और ढलानों की स्थिरता पर गहरा असर.
जलवायु परिवर्तन और भूस्खलन का बढ़ता खतरा
साहा ने आगे कहा कि भारत में भूस्खलनों में हो रही बढ़ोतरी, क्लाइमेट चेंज के प्रभावों और बढ़ते मानवीय दखल का मिलाजुला परिणाम है. ये दोनों ही कारक मिलकर भूभाग को अस्थिर बना रहे हैं. भारत के पर्वतीय और पहाड़ी क्षेत्रों में भूस्खलन की बढ़ती घटनाओं के पीछे कई संभावित कारण हो सकते हैं. भूवैज्ञानिक साहा के अनुसार, इन इलाकों में ढलानें खड़ी होती हैं. ये ढलान चट्टानों, मिट्टी या मलबे से बने होते हैं जो गुरुत्वाकर्षण बल के प्रभाव में आसानी से अस्थिर हो सकते हैं. अगर इन ढलानों में कोई भी हलचल चाहे वह प्राकृतिक कारणों से हो या मानव गतिविधियों के चलते हुई हो उससे भूस्खलन की आशंका बढ़ जाती है.
भूस्खलन आने की वजह
उन्होंने आगे बताया कि दूसरी तरफ इनमें से कुछ इलाके टेक्टोनिक रूप से एक्टिव हैं. इन क्षेत्रों की भूवैज्ञानिक संरचनाएं युवा, खंडित और ज्यादा अपक्षयित होती हैं, जिसकी वजह से वो कमजोर पड़ जाती हैं और उनके बारिश या भूकंप के समय में टूटने की संभावना ज्यादा हो जाती है. इसमें बारिश की भूमिका सबसे ज्यादा होती है. मानवीय गतिविधियों से जल की निकासी में बाधा आने लगती है और भूभाग अस्थिर हो जाता है. भारत के मानसून की ये खास बात है कि अगर लंबे वक्त तक अगर बारिश आती है तो इससे मिट्टी और चट्टानों में नमी बढ़ जाती है. इसके बाद फिर छिद्रों पर दबाव बढ़ने लगता है और उनकी एक दूसरे से जुड़ने की क्षमता कमजोर पड़ जाती है. ये दोनों ही भूस्खलन लाने में ज्यादा योगदान देते हैं.
मानवीय गतिविधियां और पर्यावरण का नुकसान
भूविज्ञानी ने जानकारी दी कि विकास की गतिविधियां, जंगलों को काटना, सड़क बनाना और मौजूदा बुनियादी ढांचे का बढ़ाना, खासकर अस्थिर या फिर गैर-इंजीनियरिंग ढलानों पर जो कई बार प्राकृतिक जल निकासी प्रणालियों को रोकने की वजह से भूभाग को ज्यादा अस्थिर बनाते हैं. भूवैज्ञानिकों ने अपने राष्ट्रीय भूस्खलन संवेदनशीलता मानचित्रण (एनएलएसएम) कार्यक्रम के तहत जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश के पूरे हिमालयी क्षेत्र में उन जगहों की पहचान की है जो भूस्खलन के लिए सबसे अधिक संवेदनशील हैं. वैज्ञानिकों ने प्रायद्वीपीय भारत के पश्चिमी घाटों जैसे कि केरल, कर्नाटक, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में नीलगिरी और कोंकण तट जैसे क्षेत्रों को भी ज्यादा जोखिम वाले क्षेत्रों के तौर पर चिन्हित किया गया है.