जयपुर से मुंबई एक्सप्रेस ट्रेन में इस तरह की घटना कहीं..!
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आरोपी अकेले दोषी नहीं होता – मनोविज्ञान
रायपुर। रेलवे सुरक्षा बल आरपीएफ के एक जवान (सिपाही) ने सोमवार तड़के, जयपुर से मुंबई जा रही एक्सप्रेस ट्रेन में अंधाधुंध फायरिंग अपनी स्वचालित
गन से की। जिसमें आरपीएफ के एएसआई समेत 3 यात्री मारे गए। आरोपी को भागने से पहले जीआरपी ने पकड़ लिया।
इतिहास उठाकर देखें तो देश के कई हिस्सों से कुछ-कुछ बरसों के अंतराल में उपरोक्त प्रकार की घटनाओं खबरें आती रहती हैं। जिनमें अक्सर कहा जाता है (बताया जाता) कि आरोपी डिप्रेशन में था। तनाव पर चल रहा था। या घर परिवार की स्थिति, समस्या से व्यथित था। या विभागीय अधिकारियों के दबाव से परेशान था। कई बार तो छुट्टी पर घर गया, कोई जवान ड्यूटी पर लौटते ही उक्त प्रकार की हरकत फायरिंग कर कुछ लोगों समेत खुद को भी मार डालता है।
वजह जो भी हो पर जब देश के अंदर थानों में मिलिट्री शिविरों में कार्यालयों में सार्वजनिक स्थान पर या घर पर भी जवान (सिपाही) या अन्य रेकिंग वाले अधिकारी इस तरह की घटनाओं को अंजाम देते हैं तो घटनास्थल (जगह) स्थिति की भयावहता, वजह का अंदाजा या आरोपियों की मनोदशा की कल्पना की जा सकती है।
ऐसी वारदातों/घटनाओं को रोकने प्रसिद्ध एवं सफल मनोचिकित्सकों की समिति बनाकर या आयोग गठित कर जांच कराई जानी चाहिए। जिसकी रिपोर्ट पर व्यवस्था में सुधार किया जा सके। ऐसा क्यों होता है। ऐसी स्थिति आती-बनती क्यों है। आरोपी आखिर इंसान होते हैं फिर अचानक से क्या होते हैं। उनके दिलो-दिमाग को समझना होगा। घर-परिवार, पति-पत्नी के रिश्ते, दोस्त-यार, माहौल, सामाजिक व्यवस्थाओं, विभागीय अधिकारियों, प्रभारियों के व्यवहार सख्ती, अनुशासन, काम के दबाव, अधिकारी- प्रभारी द्वारा टार्चर करने अन्य कर्मियों, अधिकारियों की तुलना में कम वेतनमान, जिम्मेदारियों गंभीरता, दूसरे विभागों में तुलनात्मक रूप से कम काम कम जिम्मेदारी ऊपर से अच्छा खासा वेतनमान, देश -प्रदेश का सामाजिक माहौल, ज्वलंत मुद्दों पर स्वतंत्र राय-विचार शासकीय कर्मी होने से अपनी राय, विचार, पीड़ा बयान नहीं कर पाना। विभागीय अधिकारी का घरेलू- पारिवारिक निजी कार्य करने से हीनभावना आना, छोटी कम वेतनमान वाली नौकरी होने के बावजूद स्वाभिमानी जिंदगी, घटना बाद दोषी सिद्ध होने पर होने वाली सजा की तुलना में आरोपी किसी बात पर तीव्र पीड़ा, ठेस, भावनाओं को चोट पहुंचना, मान-सम्मान को धक्का आदि-आदि को शीर्ष पर रखे या महत्वपूर्ण मानें तो तय है कि वह घटना को अंजाम दे देता है। तथा सजा काटते टीस, कसक, पीड़ा से बचने यानी वर्षों-वर्षों तक घटना के कारणों को याद करते-रखते हुए जीने से अच्छा वह (आरोपी) खुद को भी अक्सर मार डालता है। उपरोक्त परिस्थितियों हालातों से गुजरता व्यक्ति, कर्मी, अधिकारी,कभी भी कही भी हालात के सिर के ऊपर से गुजरने पर उपरोक्त प्रकार के घटनाक्रमों को अंजाम दे देता हैं।
यहां यह बता देना या याद दिला देना या संज्ञान में लाना लाजमी है- कि उपरोक्त प्रकार से डिप्रेशन या बिखराव या पीड़ित टार्चर व्यक्ति दूसरे विभागों, जगहों पर है। पर दूसरे ढंग से प्रतिक्रिया देता है। वजह उसके पास लाइसेंसी हथियार नहीं होता। तब वह या तो खुद मौत को गले लगा लेता है। एक शिकायत पत्र लिखकर या बदला लेने मौका ढूंढता है। या कि विभागीय अधिकारियों से टार्चर हो औरों को सजग करता है, उनकी यत्र-तत्र आलोचना करता है। गाली देता है, कोसता हैं। भले ही पीठ पीछे (क्योंकि पापी पेट -परिवार वास्ते सामने चुप रहना पड़ता हैं ) सही, पर मनोविज्ञान कहता है कि मानव मन मष्तिस्क एक सीमा तक सहता है। जहां सीमा पार हुई (क्षमता के बाहर) वहां पर व्यक्ति बदला लेने या गुस्सा उतारने में तत्काल जुट जाता है। इस क्रम में कई मर्तबे निर्दोष मारे जाते हैं परंतु पागलपन का दौरा ( डिप्रेशन) में है तब नहीं देखता, सीधे एक्शन लेता है।