लाइम लाइट में बने रहने भगवान को चौक चौराहे पर ले आए
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– चौपाल पर वृध्दजनों की चर्चा
– आदि पुरुष फिल्म के लिए लेखक की कलम से
रायपुर. “आदिपुरुष ” फिल्म को लेकर देश-प्रदेश में चर्चा का दौर। जितने मुंह उतनी तरह की आलोचना। इस क्रम में राजधानी के 4 वरिष्ठ नागरिक शाम ढले चौपाल में बैठे बतिया रहे थे।
पहला – सच में कलयुग आ गया है -यही दिन देखने जिन्दा रहना था। भगवान राम-हनुमान भगवान के रूप धर कुछ भी बके जा रहें हैं रंग-रूप भी बदला हुआ हैं। डर नाम की चीज नहीं है।
दूसरा – मेरी तो उम्र हो गई है, नहीं तो मुंबई जाके आदिपुरुष के निर्माता,निर्देशक,लेखक के घर-स्टूडियों में आग लगा देता। मुंबई लंका बन रहा होता।
तीसरा- घोर कलयुग,संवेदनशीलता खत्म। आस्था श्रध्दा भी दिखावा। पहला – क्या मतलब। तीसरा मतलब क्या -संवेदनशीलता, श्रध्दा-आस्था होती तो मेरा-तेरा जवान लड़का अपनी गर्ल (बहू) फ्रेंड को छोड़ अब तक लंका (आदिपुरुष -स्टूडियो) में आग लगाने दौड़ पड़े होते पर किसी का खून-खौलते नहीं दिखता। दूसरा – सच कहते हो एक दिन धरना-प्रदर्शन तोड़फोड़, मिडिया में फोटो छपवाई। फिर अपना काम धंधा में लग गए।
चौथा -यही आदिपुरुष के जारी एपीसोड के क्लाइमेक्स है। दूसरा -क्या मतलब। चौथा -मतलब क्या, अब लेखक -निर्माता कह रहा है कि हनुमान भगवान नहीं बल्कि भक्त थे। यह सब देख-सुन पहले दिन प्रदर्शन करने वाले अब ठण्डा पड़ने लग गए हैं। देखना आज मुंबई सरकार से सुरक्षा मांगने वाला फिल्म का लेखक, निर्माता चार दिन बाद घूमते -फिरते दिखेगा। पहला -घोर कलयुग, अपना नाम, प्रचार, फिल्म टीआरपी, नेता अपनी टीआरपी, युवा अपना रुतबा जताने में, ऐसे ही 2-3 दिन लगे रहते हैं। एपीसोड बदलते ही नए प्रकरण (मुद्दे) की तलाश -लाइम लाइट में बने रहने। हींग लगा न फिटकरी रंग चोखा का चोखा। चौपाल का समापन इस एकमत राय से कि आज का जवान (युवा) खोखला (खाली ) हैं। डब्बा है। ऊपर से थपथपाओं तो डब्बे अनुसार स्वर, धूल। थोड़ा मुक्का चलाओ /मारो तो पूरा डब्बा गोल, भगवान तक को खेल तमाशा बना – मंदिर से चौराहे पर ले आए। अपना लाइम लाइट में रहने के लिए…