राजधानी में बढ़ती वारदातें, जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ अपराध को निमंत्रण देना ..!

रायपुर न्यूज : शहर के तमाम वार्डों में रहने वाले युवाओं में कथित आधुनिकता अपनी धाक, दादागिरी एक तरह की अघोषित गैंगबाजी का जैसे चलन हो गया है। छोटी-मोटी बातों में लड़ाई-झगड़ा, उठा-पटक, तोड़फोड़, चाकूबाजी, हत्या तक जैसे आम बात हो गई है। आए दिन घटनाएं घट रहीं हैं। सब कुछ सामान्य दिखने -रहने के बीच कब कहां वारदात हो जाएगी इसका जरा भी अदांज लगाना मुश्किल हो गया है। पुलिस-प्रशासन कानून व्यवस्था का जैसे कोई डर ही नहीं रह गया है।

ताजा मामला एक मोहल्ला क्रिकेट मैच से निकल कर सामने आया। जब मैच के दौरान किसी निर्णय से तू-तू मैं-मैं मारपीट में तब्दील हो गई। पुलिस तक जा पहुंची। फिर घर-घुसकर हथियार लेकर दूसरे पक्ष पर जानलेवा हमला बेशक आरोपी पकड़ लिए गए हैं। इसी तरह कही शराब खरीदने लगी लाइन तोड़ने पर विवाद से मारकाट, पड़ोसी से झगड़े पर जानलेवा हमला, बच्चों के मध्य स्वाभाविक लड़ाई से उपजा विवाद हत्या तक पहुंचना। पति-पत्नी के मध्य दूसरे अवैध संबंध के शक पर हत्या, मोबाइल, पर्स लूटना, भागना, चाकू दिखाकर पैसा, पर्स लूटना आदि वारदाते जिनकी लंबी सूची है। हालिया घटी घटनाओं का एक हिस्सा है।

बेशक नए चाल-चलन परिवेश में मोबाइल कल्चर भी अहम भूमिका अदा कर रहा है। जिसमें इंटरनेट से युवा सीधे-सीधे तुरंत प्रभावित हो बिना सोचे-विचारे हरकत कर रहे हैं। वे शिक्षक- शिक्षिकाएं या माता-पिता अन्य बड़े रिश्ते नातेदारों, शुभचिंतकों के लाख समझाने-बुझाने ज्ञान देने से प्रभावित नहीं होते पर इंटरनेट उनके लिए भगवान बन गया है। 7- 8 वर्ष से लेकर 15- 16 वर्षीय किशोर- किशोरी तक इंटरनेट की गिरफ्त में है। युवाजन तो 90प्रतिशत। इसका सीधा संबंध घट रही घटनाओं से कहीं न कहीं है।

शाम को खेलने-कूदने के बजाय मस्ती करने, तीन-चार सवारी बाइक दौड़ाने गैंगबाजी करते मजा आ रहा है। एक समय था कि विद्यार्थी स्कूल से लौटकर एक-दूसरे की कापी देखकर गृहकार्य करते, कभी दूर करने का प्रयास करते पर आज एक-दूसरे का मोबाइल देख चीजें आदान-प्रदान करना व्हाट्सएप करना फैशन हो गया है। घर से निकलते या काम से छूटते ही सबसे पहले मोबाइल पर चर्चा शुरू हो जाती है। शहर, गली-मोहल्ले में पैदल चलते, वाहन चलाते मोबाइल कान से चिपके रहेगा।आगे-पीछे कौन आ जा रहा है, कौन जान-पहचान वाला देख आवाज दे रहा है इसका तनिक भी होश नहीं रहता। हर प्रकार के छोटे बड़े कामकाजी वर्ग में मोबाइल कल्चर पैंठ बन चुका है।

शहर का दायरा लगातार बढ़ते-पसरते जा रहा है। पुलिस इसके अनुपात में बेहद का कम है। फिर सब जगह पुलिस मौजूद हो यह संभव भी नही। यह चीज पहले भी थी, भविष्य में भी रहेगी। पर नैतिकता, अपनत्व, संस्कारिता, मोहल्ले कालोनी, समाज से जुड़ाव आदि नदारद हैं। यह दीगर बात है कि मोबाइल पर दूरस्थ रहने वाले ढेरों लोगों का नंबर मौजूद है उनकी हरकतों से व्हाट्सएप से लगातार जुड़ाव है। लिहाजा जहां हैं वहा मौजूद हैं वहां कुछ घटना घटित होने पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता। क्योंकि जुड़ाव रखा ही नहीं। पहचान बनाई ही नही। जिम्मेदारी साझा नहीं की गई। लेकिन जब कोई खुद इसका शिकार बन जाता है तो उसके आसपास का कोई भी व्यक्ति इस मामले में कोई हिस्सा नहीं लेता। क्योंकि दूरी तो हमने खुद ही बना रखी थी।

उपरोक्त, हालत में घटना-घटने पर पुलिस को जिम्मेदार ठहरना गलत है। क्योंकि घटना की वजह को हमने पैदा किया। आमंत्रण हमने दिया। घटनास्थल पर बचाव इसलिए नहीं क्योंकि हमने खुद माहौल वैसा बना रखा है। जुड़ाव आसपास न रखकर दूर वालों से रखा। बेशक पुलिस सूचना पर आएगी, पूछताछ करेगी। धरपकड़ करेगी। केस दर्ज करेगी। पर शिकार तो आप या हम हो चुके हैं। उसका क्या ! क्या इस बात या तर्क पर चिंतन-मनन करेंगे। शायद नहीं। वजह वक्त कहां। सारा वक्त तो मोबाइल में। लिहाजा आज यहां, कल वहां, परसों कहीं ओर घटना घटेगी। घटते रहेगी। जब तक चोट न लगे बच्चा संभालता कहां है। यह शहर चुपके-चुपके तेजी से वारदातों का शहर बनता जा रहा है। पुलिस और कानून-व्यवस्था को दोष देना अपनी जिम्मेदारियों से बचना होगा।

(लेखक डा. विजय)

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