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हिंदी दिवस- अपनी मातृभाषा में बोलना, लिखना-पढ़ना शिक्षा प्राप्त करना मौलिक अधिकार हो

एक भाषा से सर्वागीण विकास … !

रायपुर। देश-प्रदेश के विभिन्न हिस्सों में आज 14 सितंबर गुरुवार को हिंदी दिवस मनाया जा रहा है। राजधानी रायपुर समेत राज्य के तमाम शहरों, कस्बों में शैक्षणिक संस्थान एवं केंद्र-राज्य सरकार के संस्थान भी मौके पर कार्यक्रम, समारोह कर रहे हैं।

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हमारे देश में एक बड़ा तबका हिंदी बोलता-समझता है। कार्यालयों, संस्थाओं में भी लिखा-पढ़ा जाता है। किंतु संविधान में यह व्यवस्था नहीं है कि हर राज्य- प्रदेश या केंद्र शासित प्रदेश हिंदी भाषा बोले, सरकारी कामकाज हिंदी में ही हो। ऐसी व्यवस्था नहीं की गई है। करीब दर्जन भर राज्यों केंद्र शासित प्रदेशों में वहां की भाषा बोली जाती है- लिखी-पढ़ी एवं शासकीय कार्यालयों में प्रयुक्त की जाती है।

आजादी के पूर्व के हमारे तमाम नेताओं ने हिंदी भाषा की वकालत करते हुए इस देश की एकता प्रगति समृद्धि विकास से जोड़ा था। परंतु हिंदी राष्ट्रभाषा का रूप नहीं ले सकी। कई गैर हिंदी भाषाई राज्य तो विकल्प के तौर पर भी इसे नहीं स्वीकारते। आजादी के एक-दो दशक के बाद पैदा हुए नेताओं ने भी हिंदी को बढ़ावा देने की बात कही। अफसोस न तो आजादी पूर्व न ही बाद के नेताओं के मंसूबे (इच्छाएं, हसरत, तमन्ना) पूरे हुए।

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कहां जाता है कि बच्चों को अगर उसकी मातृभाषा-बोली में शिक्षा दी जाए तो वह तेजी से पढ़ना-लिखना सीखता हैं। उसकी सही प्रतिभा सामने आती है। पर देश में शिक्षा प्रणाली में इसकी जगह अंग्रेजी ने ले ली। हालांकि कुछ राज्यों में स्थानीय भाषा में उच्च संस्थानों में पढ़ाई होती है। पर ज्यादातर हिंदी भाषाई क्षेत्रों में अंग्रेजी भाषा में तकनीकी, चिकित्सा, प्रबंधन संबंधी पढ़ाई कराई जा रही है। यहां के विद्यार्थी स्थानीय बोली-भाषा के साथ हिंदी भाषा जानते-समझते हैं। उन्हें अंग्रेजी नहीं आती। नतीजन व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में पढ़ाई के दौरान व्यापक कठिनाई झेलनी पड़ती है। या कि पढ़ाई छोड़नी पड़ती है। प्रतिभा समय पूर्व दम तोड़ देती हैं। गैर हिंदी राज्यों में वहां की स्थानीय भाषा बोली समेत अंग्रेजी भाषा यानी दोनों विकल्प अपनाते हैं। लिहाजा उन्हें उच्च शिक्षण संस्थाओं में अंग्रेजी माध्यम होने से कोई तकलीफ नहीं होती। यहां स्थानीय प्रतिभाओं का हनन नहीं होता है।

राज्य के अंदर तमाम संस्थान आज 14 सितंबर गुरुवार को यह संकल्प ले रहें हैं कि वे हिंदी भाषा को बोलेंगे- लिखने एवं प्रसारित करेंगे। पर यह औपचारिकता भर है। दुनिया भर के देशों की अपनी एक राष्ट्रभाषा है। जिस पर वहां की शिक्षा प्रणाली चल रहीं हैं। जिसमें राज्यों की प्रतिभाएं खुलकर सामने आती हैं। पर दुर्भाग्य से आजादी के 75 वर्ष बाद भी हमारे यहां ऐसी कोई व्यवस्था नहीं की गई। अंग्रेजी माध्यम होने के कारण स्कूल पास आउट कुछ विद्यार्थी ही यानी अंग्रेजी माध्यम वाले ही आगे बढ़ पाते हैं। गैर अंग्रेजी माध्यम वाले विद्यार्थी बाहर हो जाते हैं। विकसित होने के पूर्व फूल (दक्ष विद्यार्थी) दम तोड़ देता है। नई पीढ़ी अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में डोनेशन देकर प्रवेश दिला रहें है।

बहरहाल भाषा कोई भी हो बुरी नहीं होती। जैसे ना अंग्रेजी ना हिंदी। पर जैसे सफल व्यक्ति का अपना एक सिद्धांत, लक्ष्य होता है। चरित्र होता है। वैसे ही हर राष्ट्र की अपनी एक भाषा-बोली होती है। एक संस्कृति-धर्म होता है। दो नावों पर सवारी करके आप लक्ष्य तक नहीं पहुंच सकते। देश में आजादी के पूर्व-बाद में जितने भी प्रसिद्ध नेता हुए वे हिंदी में पारंगत थे। अंग्रेजी भी जानते-समझते, बोलते-लिखते पढ़ते थे। पर शिक्षा, कामकाज का माध्यम देश की एकता, समृद्धि लिए हिंदी करना चाहते थे। किसी भी देश में अनेक बोली-भाषा, संस्कृति होने का फायदा दूसरे देश उठाते हैं। वे हमें इसी नाम से भड़काते हैं। दूसरे को कमतर ठहराते हैं। लड़ाते हैं। यहां हमारी एकता खंडित होती है। (अमूर्त रूप से) जो हमें कमजोर करती है। देश समृध्दता के रास्ते पर धीरे हो जाता है। देश की समृद्धि, विकास व्यक्ति विशेष के पनपने या राज्य विशेष से नहीं बल्कि सर्वांगीण विकास होने से होती है। आज भी आजादी के 75 वर्षों बाद एक तबका जीने के लिए जंगलों में निवासरत है। एक तबका जैसे-तैसे गुजारा कर रहा है। अंग्रेजी की वकालत कर हिंदी को फटकारने वालों को पूछे देश के हजारों शहीदों ने हिंदी भाषा- बोली संस्कृति को अपनाकर अपनी राष्ट्र माता वास्ते शहादत दी थी- क्या वे गलत थे !

(लेखक डॉ. विजय)

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